{6.} श्री कृष्ण: शरणम मम



                                      "जय श्री कृष्ण"
                              [  श्री कृष्ण शरणम ममः  ]

विश्व-शांति, न्याय और स्वतंत्रता की बुनियाद है,
कल्याण की इच्छा वाले मनुष्यों को उचित है कि मोह का त्याग कर अतिशय श्रद्धा-भक्तिपूर्वक अपने बच्चों को अर्थ और भाव के साथ श्रीगीताजी का अध्ययन कराएँ।


स्वयं भी इसका पठन और मनन करते हुए भगवान की आज्ञानुसार साधन करने में समर्थ हो जाएँ क्योंकि अतिदुर्लभ मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर अपने अमूल्य समय का एक क्षण भी दु:खमूलक क्षणभंगुर भोगों के भोगने में नष्ट करना उचित नहीं है।


गीताजी का पाठ आरंभ करने से पूर्व निम्न श्लोक को भावार्थ सहित पढ़कर श्रीहरिविष्णु का ध्यान करें--!!

अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्यनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम्।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं
वन्दे विष्णु भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।।

भावार्थ : जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शैया पर शयन किए हुए हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो ‍देवताओं के भी ईश्वर और संपूर्ण जगत के आधार हैं, जो आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं, नीलमेघ के समान जिनका वर्ण है, अतिशय सुंदर जिनके संपूर्ण अंग हैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किए जाते हैं, जो संपूर्ण लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरण रूप भय का नाश करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपति, कमलनेत्र भगवान श्रीविष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ।

यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुत: स्तुन्वन्ति दिव्यै: स्तवै-
र्वेदै: साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगा:।
ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो-
यस्तानं न विदु: सुरासुरगणा देवाय तस्मै नम:।।

भावार्थ : ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र और मरुद्‍गण दिव्य स्तोत्रों द्वारा जिनकी स्तुति करते हैं, सामवेद के गाने वाले अंग, पद, क्रम और उपनिषदों के सहित वेदों द्वारा जिनका गान करते हैं, योगीजन ध्यान में स्थित तद्‍गत हुए मन से जिनका दर्शन करते हैं, देवता और असुर गण (कोई भी) जिनके अन्त को नहीं जानते, उन (परमपुरुष नारायण) देव के लिए मेरा नमस्कार है ।।

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जो भक्ति नहीं करते , उनको भगवान दुष्कृति बताते हैं [ श्लोक ७ / १५ ; ७ / १६ ] और जो भक्ति करते हैं , उनको सुकृति बताते हैं | तात्पर्य यह है की परमात्मा की तरफ चलनेवाले सुकृति और संसार की तरफ चलनेवाले दुष्कृति हैं | आगे बताया की जिनके कर्म पवित्र हैं , जिनका चरित्र अच्छा है , वे दृढव्रत होकर भगवान का भजन करते हैं [ श्लोक ७ / २८ ] |
 भगवान की ओर चलने में स्मृति की बात मुख्य है | इसलिए भगवान कहते हैं कि तू सब समय में मेरा स्मरण कर - सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर [ श्लोक ८ / ७ ] | फिर भगवान ने विशेष बात बताई की जो निरंतर मेरा स्मरण करता है , उसके लिए मैं सुलभ हूँ [ श्लोक ८ / १४ ; ९ / १३ ; १८ / ५७ - ५८ ] |

भगवान का स्मरण करना देवीसम्पत्ति का , सत्चरित्रता का वास्तविक मूल है | स्मरण करने का तात्पर्य है - भगवान के साथ अपना जो वास्तविक संबंध है , उसको स्मरण करना कि मेरा तो केवल भगवान के साथ ही संबंध है , संसार के साथ नहीं | इस प्रकार परमात्मा के साथ नित्य संबंध को याद रखना ही स्मृति है | वेद , यज्ञ , तप , दान , तीर्थ , व्रत आदि
 से जो लाभ होता है , उससे अधिक लाभ भगवान का उद्देश्य रखकर भगवान की ओर चलने वाले को होता है [ श्लोक ८ / २८ ] | इसलिए भगवान की तरफ चलने को सब विद्याओं का राजा , सब गोपनीयों का राजा , अति पवित्र , अति उत्तम , प्रत्यक्ष फलवाला , धर्मयुक्त , करने में बड़ा सुगम और अविनाशी बताया गया है [ ९ / २ ] |

 जैसे बालक माता की गोद में रहता है तो उसका स्वाभाविक ही पालन पोषण एवं वर्धन हो जाता है , ऐसे ही एक प्रभू का आश्रय ले लिया जाय तो सब के सब सद्गुण - सदाचार बिना जाने ही आ जाएंगे | अपने -आप ही चरित्र - निर्माण हो जायेगा | इस तरह पूरी गीता में एक ही बात है - परमात्मा की तरफ चलना अर्थात परमात्मा के सम्मुख होना | परमात्मा की ओर चलने का उद्देश्य ही चरित्र - निर्माण में हेतु है और संसार की ओर चलने का उद्देश्य ही चरित्र गिरने में हेतु है | सांसारिक भोग और संग्रह की इच्छा से ही सब दुर्गुण - दुराचार आते हैं | सबसे अधिक पतन करने वाली वस्तु है - पैसे का महत्त्व और आश्रय | इससे मनुष्य का चरित्र गिर जाता है | चरित्र गिरने से उसकी मनुष्यों में निंदा होती है , अपमान होता है | चरित्रहीन मनुष्य पशुओं तथा नारकीय जीवों से भी नीचा है ; क्योंकि पशु और नारकीय जीव तो पहले किये हुए पाप - कर्मों का फल भोगकर मनुष्यता की तरफ आ रहे हैं , पर चरित्रहीन मनुष्य पापों में लगकर पशुता तथा नरकों की तरफ जा रहा है | ऐसे मनुष्य का संग भी पतन करने वाला है | अत: अपना चरित्र सुधारने के लिए भगवान के सम्मुख हो जायं कि मैं भगवान का हूँ , भगवान मेरे हैं | मैं संसार का नहीं हूँ , संसार मेरा नहीं है |
मनुष्य से भूल यह होती है की जो अपने नहीं है , उन सांसारिक वस्तुओं को तो अपना मान लेता है और जो वास्तव में अपने हैं , उन भगवान को अपना नहीं मानता | संसार की वस्तुओं को संसार की सेवा में लगा देना है और अपने आप को भगवान के अर्पित कर देना है | न तो संसार से कुछ लेना है और न भगवान से ही कुछ लेना है | अगर लेना ही है तो केवल भगवान को ही लेना है | भगवान में अपनापन होने से सब आचरण और भाव स्वत: शुद्ध हो जायेंगे | फिर मनुष्य में सचरित्रता अपने आप आ जायेगी | इस चरित्र निर्माण में सब - के -सब स्वतंत्र हैं , समर्थ हैं , योग्य हैं और अधिकारी हैं |
                                                           !! इति !!

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